भारतीय समाज में सवर्ण
व्यक्ति के लिए धर्म और संस्कृति की व्याख्यायों से बुना हुआ ऐसा भ्रम जाल उपलब्ध
होता है कि उसके लिए भारतीय समाज की कुरूपता को देखना लगभग असंभव जैसा है। यहाँ की
पारिवारिक व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था इस तरह की है कि वह
स्कूल कॉलेज यूनिवर्सिटी और यहाँ तक विदेशों में भी पढ़ आएगा लेकिन बहुत संभव है कि
वह यह ना जान सके इस देश का वंचित, गरीब वर्ग और शोषित वर्ग किन लोगों का है और इस शोषण,
उत्पीड़न, वंचना और गरीबी के क्या कारण हैं।
यहाँ तक कि साहित्य और
समाज अध्यन केन्द्रित इतिहास और सामजिक विज्ञान जैसे विषयों में पारंगत होने के
बाद भी बहुत दुर्लभ है कि वह इस घृणित व्यवस्था के खिलाफ़ खड़ा हो जाए और अपने जीवन
काल में इसके विरुद्ध खड़ा रहकर इस प्रभाव को अपने परिवार और समाज में चेतना की
विरासत छोड़ जाए। इस देश में संसाधनों जिन से जीवन की संपन्नता और सामाजिक आधिपत्य
बनता है इन सभी संसाधनों पर आज भी सवर्ण वर्चस्व बरक़रार है। संवैधानिक आरक्षण भी
सवर्ण वर्चस्व का किला नहीं बेंध सका है।
भारत में जन्मे सवर्ण
व्यक्ति के लिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था के सच को देख पाना इस क़दर नामुमकिन बनाया है
कि वह अपनी अपार बुद्धि, अनुभव और औपचारिक शिक्षा के बावजूद और अपनी कथित
न्यायप्रियता के बावजूद भारतीय समाज के सबसे बड़ी अन्यायी और क्रूर व्यवस्थायों को
देख नहीं पाता। भारत की ब्राह्मणवादी व्यवस्था इतनी ज़्यादा चालाक है कि अगर कोई
व्यक्ति जागरूक भी हो जाए तो उसके लिए इस संस्कृति में ऐसी सज़ा नियुक्त की गयी है
कि उस सामाजिक अलगाव और बहिष्कार और अकेलेपन से डरता वह अपनी ज़रा सी आयी जाग को भी
इन क्रूर व्यवस्थायों के प्रभाव और दबाव से डर कर अपनी निजी ज़िन्दगी में ख़ुश रहने
की कोशिश करने लगता है।
भारत में प्रचलित भाग्यवाद
ने सवर्णों को दिग्भ्रमित कर रखा है। जब वे किसी दलित या ग़रीब या वंचित को देखते
हैं तो वे उस कमी को भाग्य से जोड़ते हैं कि इसकी किस्मत ऐसी थी जो यह ग़रीब पैदा
हुआ या यह दलित पैदा हुआ या यह स्त्री पैदा हुई या इस स्त्री के जीवन में कोई कमी
है। सोचिये कितनी धूर्त विचार-पद्धति है भारतीय समाज में कि जीवन में अभाव और
वंचना के प्रश्नों में 'सामाजिक भूमिका' को चेतना से ही गायब कर दिया है।
सवर्ण व्यक्ति जब अपने ही
जैसे किसी मनुष्य को सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर देखता है तो वह इसे धार्मिक
और आध्यात्मिक दृष्टि से ही देखता है, सामाजिक दृष्टिकोण उसकी पहुँच से बहुत दूर रखा गया है। जबकि
सोचने की पद्धति तो यह होनी चाहिए कि उसके सामने जब भी कोई जीवन के मौलिक अधिकारों
से वंचित मनुष्य आए तो उसमें वह धर्म और आध्यात्म के फेर में नहीं पड़े और अपने आप
से यह सवाल पूछें –
जो सदियों से खेत मजदूरी
ही कर रहा है और कड़ी मेहनत के बाद भी आज तक ग़रीब क्यों है ?
उसकी जाति क्या है ?
उसकी जाति क्या है ?
जमादार किस जाति के होते
हैं ?
कूड़ा उठाने वालों की
तनख्वाह इतनी कम क्यों होती है ?
घरों में सस्ते में काम
करने वाली स्त्रियाँ और पुरुष किस जाति के हैं ?
हमारे देश में इतनी सस्ती
लेबर क्यों है ?
दलितों के प्रति इतनी
हिंसा क्यों होती है ?
जो सब संयोग-दुर्योग या
किस्मत इत्तेफ़ाक लगता है दरअसल उसका जवाब सामाजिक व्यवस्था है।
बहुत पीछे क्या जाना,
अभी थोड़े दिन पहले जब दिल्ली से प्रवासी मजदूर पैदल ही
उत्तर प्रदेश और बिहार के लिए पैदल निकल पड़े तो वह भी देश के जातिवाद को समझने का
अवसर था,
वह महज़ प्रवासी मजदूरों का हताश और निरुपाय होकर अपने घरों
में लौट जाने का दृश्य नहीं था, वह इस देश की घृणित सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था को समझने और
उसके प्रति सच्चा आक्रोश पैदा करने का दृश्य था।
आज़ादी के बाद सवर्णों को
लगा कि आ तो गए दलितों के एक नेता आंबेडकर और मिल गया संविधान से आरक्षण-और इन्हें
क्या चाहिए। लेकिन जातिवाद की जडें इस देश में बिलकुल वैसे ही बनी हुई हैं।
शहरीकरण होने लगा तो शहर में जनपद अलग तरीके से बसाए जाते हैं लेकिन लोगों ने मान लिया
कि जाति तो अब रही कहाँ, दलित संपति ख़रीद रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं लेकिन असल में जाति कहीं नहीं गयी। देश
में राजनैतिक सामाजिक हालात के बदलने के साथ सिर्फ उसने अपना स्वरुप बदला है।
बल्कि सवर्णों ने उतने ही अन्यायपूर्ण तरीक़े से दलितों का रिप्रजेंटेशन करना जारी
रखा। घरों, परिवारों और गली मोहल्लों में बराबर जाति पर आधारित भेदभाव बना रहा।
होना तो यह चाहिए था कि
भारत में आज़ादी के बाद सवर्ण नेता अपने लोगों को जाति खंडन के प्रति आंदोलित करते।
इस मामले में जब नए सिरे से देश का गठन हो ही रहा था तो इसका सबसे बड़ा कदम जाति का
विनाश होना चाहिए था। लेकिन यहाँ सिर्फ जाति के आधार पर नयी तरह की वोट पॉलिटिक्स
की शुरुआत हुई। मैं तो इस बात पर हैरान हूँ की भारत के निर्माता कहे जाने वाले,
भारत की आत्मा को आत्मसात करने वाले मर्मग्य माने जाने वाले
राजनेतायों को कैसे सभी समुदायों के
प्रतिनिधि कहा जा सकता है जब उन्होंने इस देश के सबसे बड़े कोढ़ की कड़े
शब्दों की निंदा नहीं की और उसका नाश करने के लिए निर्णायक कदम नहीं उठाए।
जाति के उन्मूलन के बिना
सत्य अहिंसा के सिद्धांत की क्या असल प्रासंगिकता होगी भारत जैसे देश में ?
जाति से बड़ी क्या हिंसा है भला और जाति से बड़ा असत्य क्या
है ?
सामाजिक सामानता के बिना कैसा सर्वोदय ?
दलितों को हरिजन आदि euphemism से obscure करना भाग्यवाद के दर्शन को ही और वैध बनाना है। यह बात
परेशान करने वाली है कि सत्य-अहिंसा की परंपरा को आगे लेजाने वाले भी जाति के प्रश्नों
का सामना किये बगैर ही इस विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं।
...और आधुनिकता ? जाति के उन्मूलन के बिना इस देश का आधुनिक बनना असंभव है। जाति के प्रश्न को संबोधित किये बगैर, उसे खत्म किये बगैर अगर कोई भारत को आधुनिक बनाने का सपना देखता है तो मुझे लगता है यह उसकी फंतासी हो सकती है, यथार्थ नहीं। वर्तमान भारत ऐसे फंतासी की असफल प्रयोगशाला ही है।
हमारे यहाँ तो मार्क्सवादी
भी जाति गौरव को मेंटेन करते हुए ही समाजवाद का संघर्ष करना चाहते हैं।
आज़ादी के आन्दोलन के
नायकों के बारे में जब सोचती हूँ तो मेरे मन में आंबेडकर के प्रति सच्चा और अडिग
आदर उमड़ता है। वैसे तो सवर्ण समाज में इस बात को सुनिश्चित किया जाता है कि सवर्ण
लोग अंबेडकर के चक्कर में नहीं पड़ जाए और इसके लिए घर से लेकर स्कूल तक ऐसे प्रबंध
किये हुए हैं कि सवर्ण बालक और विद्यार्थी के दिमाग में यह बात ऐसे बसायी जाती है
कि अंबेडकर संविधान की ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष थे लेकिन नेता वे सिर्फ़ दलितों के
हैं और उनकी चेतना में अंबेडकर कभी उनके नेता के रूप में प्रकट ही नहीं होते।
इस
तरह से भारतीय मानस की स्मृति को manipulate करने को मैं आज़ाद भारत की शिक्षा प्रणाली (जिस पर सवर्णों
का ही एकाधिकार रहा है) की सबसे बड़ी साज़िश समझती हूँ। अंबेडकर मुझे बहुत स्पष्ट
कारणों से बहुत अच्छे लगते हैं।
उन्होंने सिद्धांतों और
विचारों को भारत के समाज पर नहीं लादा और थोपा बल्कि समाज को देख कर और समझ कर और
विश्लेषण करके सिद्धांत और विचार बनाए।
लगभग एकल रूप से इतना अधिक
काम करना,
इतना पढ़ना, इतना लिखना, इतने लोगों के लिए आन्दोलन का मुख बांधना बहुत बड़ा काम है।
सवर्णों का नेता बनना आसान है लेकिन उस समय दलितों का नेता बनना कितना मुश्किल रहा
होगा जबकि दलित ख़ुद अपने प्रति हो रहे शोषण को प्राकृतिक मान चुके हों। सोये हुओं
को जगाना और अपनी आज़ादी के लिए आंदोलित करना बहुत अधिक कठिन काम रहा होगा।
मैं आज
भी देखती हूँ सोयी हुई स्त्रियों को जगाना कितना कठिन और दुर्गम काम है फिर भी मैं
सिर्फ अनुमान भर कर सकती हूँ, अंबेडकर के अपने उत्पीड़न के बावजूद उन्होंने दलितों और
स्त्रियों के लिए इतना कुछ किया, उनके विवेक को जगाया, यह भारतीय इतिहास की दुलर्भतम उदाहरण है। इस मामले में
उन्होंने तिहरी लड़ाई लड़ी, ख़ुद भी उत्पीड़न सहा, अपने लोगों को भी उनके शोषण के कारणों को स्पष्ट किया और
सवर्ण समाज और सवर्ण नेतायों से संघर्ष किया।
अंबेडकर ने भारत के विचार
के गिर्द बनाए हुए गौरव और परंपरा की धुंध (जो दरअसल सिर्फ सवर्णों का हित साधन ही
करती थी/है) की छटाई की और इसकी सामाजिक बदसूरती का पर्दाफाश किया और बहुत
वैज्ञानिक ढंग से सामाजिक संरचनाओं को समझा और स्पष्ट रूप से इनका खंडन किया। अपने
छोटे से जीवन में वे भारतीय समाज से जितना कूड़ा उठा सकते थे,
उन्होंने उठाया, इसलिए मैं उन्हें महान मानती हूँ।
कुछ समय पहले तक मुझे
बुद्धिमान पढ़े लिखे लोग बहुत अच्छे लगते थे, मैं उनके पढ़े लिखे से प्रभावित हुआ करती थी, भाषा और अभिव्यक्ति से इम्प्रेस होती थी लेकिन अब मेरा criteria
बदल गया है। अब मैं एक भारतीय विद्वान् को सबसे पहले दो
चीज़ों पर टेस्ट करती हूँ।
क्या वह जाति व्यवस्था की हिमायती है या विरोधी ? क्या वह स्त्री-विरोधी है ?
भारत में कोई जितना बड़ा
मर्ज़ी लेखक या नेता हो या कुछ और हो अगर वह अभी तक जाति और जेंडर की श्रेष्ठता में
उलझा हुआ तो हमारी दिल से दोस्ती नहीं हो सकती। यानी मैं उसके विवेक पर भरोसा नहीं
कर सकती।
बयालीस साल के अपने जीवन
की सबसे बड़ी उपलब्धि मैं इस बात को मानती हूँ कि मुझे जाति व्यवस्था और स्त्री
उत्पीड़न और शोषण से घृणा हो गयी है। मैं भारतीय समाज को गौरवशाली समाज नहीं बल्कि
बीमार समाज मानती हूँ। इस देश के बारे में रोमांटिक बातें बताकर अब मुझे कोई फुसला
बहला नहीं सकता और टॉक्सिक पॉजिटिविटी से भ्रमित नहीं कर सकता।
बहुत देर तक इत उत डोलते
रहने से या समाज से डर जाने की तमाम घटनायों से उबरते हुए मुझे यह यह बात स्पष्ट
हुई है,
मैं ख़ुद बार बार इसके फेर में आ जाती थी,
सवर्णों के या कहे ब्राह्मणवादी व्यवस्था के तंतु बहुत
बारीक हैं लेकिन अगर ईमानदारी से कोई इस किले से बाहर निकलना चाहे तो निकल भी सकता
है। कास्टिस्म और पैट्रिआर्की को घृणा किये बगैर और इसके विरुद्ध खड़े हुए बगैर
भारत का सच्चा नागरिक नहीं बना जा सकता। जब जाति और जेंडर की संरचनाएँ समझ आनी
शुरू हो जाती हैं तो आप हर घटना की अगर जड़ तक पहुँचना चाहेंगे तो ये कहीं न कहीं
जाति और लिंग-भेद पर आकर ही इसके तार जुड़ेंगे।
सवर्ण समाज की बहुत
मूर्खता होती है कि इनका इतिहास बोध बहुत गड़बड़ होता है। जैसे ही सवर्ण समाज को
दलित उत्पीड़न की बात करने लगो तो ये आरक्षण की नीति को सवर्णों पर शोषण सिद्ध करने
लग जाते हैं और दलितों में बनी क्रीमी लेयर की आलोचना करने में जुट जाते हैं।
सवर्ण समाज में बच्चों का यह प्रशिक्षण ही नहीं किया जाता कि समाज की ऐतिहासिकता
होती है,
दलित उत्पीड़न और सवर्ण प्रिविलेज का एक इतिहास है जिसे हम
सभी को ठीक से पता होना चाहिए।
तुम्हें सत्तर साल से आधे पौने रूप से लागू हुए
आरक्षण ( आधे पौने इसलिए कि आरक्षण के आधार पर मिले दाखिले और नौकरियाँ भी सवर्ण
समाज में दंश की तरह देखी जाती है और दूसरा यह कि आज भी दलितों का एक बड़ा हिस्सा
दलित चेतना और अपने अधिकारों और सुविधायों से वंचित है) से तुम उकता गए दुखी हो गए,
सदियों की अपनी प्रिविलेज से कोई वितृष्णा नहीं हुई।
सदियों से ज्ञान और शिक्षा
के साधनों पर काबिज़ होकर भी सवर्ण मनुष्य को यह अहंकार (वर्ण आश्रम के सोपानों के
अनुसार अहंकार घटता रहता है) रहता है कि उसके पास ऊँची पदवियाँ और प्रतिष्ठा उसकी
जन्म जात मेरिट की वजह से है। ऐसे मनुष्य को कोरोना से ज़्यादा अपने इस अहंकार से
डरना चाहिए क्योंकि यह मेरिट कोई इत्तेफाक नहीं है, फ़र्ज़ी झूठी, निराधार जाति व्यवस्था की ओर से उसे पहुँचाया गया फायदा है।
वह धन खो कर भी समाज में स्थान नहीं खोता है।
पिछले दिनों ही एक ब्राह्मण दोस्त से
करीब बारह तेरह साल की दोस्ती टूट गयी, मैं उसे कई सालों से भारतीय सन्दर्भ में ब्राह्मण प्रिविलेज
समझाने की कोशिश कर रही थी लेकिन वह इस प्रिविलेज का पूरा लाभ लाभ उठाने के साथ
साथ ही 'सर्वे भवन्तु सुखिना' की प्रार्थना करना चाहता था और इन दोनों बातों की असंभवता
को नहीं समझता था, जब मैनें उसे कहा कि इस देश के टॉप पोजीशनस पर आज भी
ब्राह्मणों का वर्चस्व है और ब्राह्मण जनसँख्या के हिसाब से यह अनुपात बहुत ज्यादा
है तो मेरी करीब पांच साल की काउन्सलिंग के बाद भी उसका कहना था कि ब्राह्मणों में
मेरिट होती है। मुझे उस वक़्त पता चल गया कि अब यह दोस्ती आगे नहीं बढ़ सकती। पर कोई
बात नहीं।
मैं अब इन चीज़ों को झेलना सीख गयी हूँ। इतनी मुश्किल से तो जीवन में इस
समाज में रहने का कॉन्फिडेंस आया है, महज़ किसी की स्वीकार्यता या दोस्ती के लिए मैं उसे क्यों
कुर्बान कर दूँ। अभी तो जीने का मज़ा आना शुरू हुआ है,
निडरता की शक्ति का एहसास हुआ,
अब अकेले हुए या दुकेले, की फर्क पैंदा।
मेरा यह भी मत है कि जो
सवर्ण लोग जाति व्यवस्था का विरोध भी करना चाहते हों तो उन्हें दलितों के साहित्य,
राजनीति और अन्य अदारों में प्रतिनिधि न बन कर केवल सहयोगी
बनना चाहिए। दलितों के बीच जाकर अपना वर्चस्व बनाना अनैतिक बात है। बल्कि मुझे
लगता है उन्हें दलितों को जागृत करने की बजाए सवर्णों को जाति व्यवस्था के विरोध
में आंदोलित करना चाहिए। बल्कि इस काम में मैदान ख़ाली पड़ा है। दलित स्वीकार्यता का
आग्रह रखे बगैर सवर्णों को दलित उत्पीड़न और शोषण के विरूद्ध खड़े होना चाहिए।
अरुंधति रॉय की किताब पर चर्चा के मैनें बहुत सारे विडियो देखे थे,
एक विडियो में उसे
एक पत्रकार सुझाव दे रहा था कि तुम दलितों के अनुभव को इन्टरप्रेट करने की बजाए
सवर्ण के कास्ट एनकाउंटर्स के बारे में क्यों नहीं लिखती। अपने कास्ट एनकाउंटर्स
के बारे में लिखो, वह दलित विमर्श और आज़ादी के ज्यादा हक़ में होगा और यही
सवर्णों की योग्य भूमिका और प्रतिभागिता भी होगी। वह विडियो देखते हुए मैंने इस
सलाह को अपने लिए भी ले लिया था और इस सलाह को सही मानते हुए आगे भी प्रसारित कर
रही हूँ।
मुझे जन्म दिन वगैरा का
कोई रोमांस या उत्साह नहीं होता। न अपने जन्मदिन का न दूसरों के जन्मदिन का। मुझे
जीवन की everydayness
रोमांचित करती है और जन्मदिन और उत्सव (जो कि भारतीय
संदर्भों में अक्सर अन्याय का महिमामंडन करने वाले होते हैं) उस दैनंदिनी में
विघ्न की तरह लगते हैं पर मैं अपने देश के
प्रिय नागरिक डॉक्टर (सचमुच का डॉक्टर) बी.आर. अंबेडकर के जन्म दिन को यह
लेख लिख कर मनाना चाहती हूँ। मेरे लिए अंबेडकर आदर्श भारतीय सजग नागरिक की मिसाल
हैं।
– मोनिका कुमार
इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी है, जरूरी नहीं है कि आप या 'तर्कशील सोसाईटी' उससे सहमत हों।